सम्राट अशोक महान्
बहुधा बहुत से लोग यह समझते हैं कि प्राचीन हिंदुओ में केवल अमुर्त कल्पना की ही प्रतिभा थी । जिसका प्रमाण यह हैं कि उन्होने दर्शन व धर्म के अनेकानेक सिद्धांतो का सर्जन किया । इनके साथ व्यावहारिक निपुणता व सामर्थ्य में उनकी हिनता सर्व विदित हैं फलत प्राचीन भारत में भौतिक व वैज्ञानिक अध्यवसायो की आलोचना करके जीवन के आध्यामिक व्यवसायो को असंगत रूप से नवजीवन दिया ।
अशोक का राज्य और वास्तव में , भारत का समस्त इतिहास इस मान्यता का खण्डन करता हैं । अशोक के शासनकाल में भारत इस भौतिक प्रगति और एक अर्थ में नेतृत्व प्रगति के भी एक बहुत ऊंचे स्तर पर पहुंच चुका था । उसने आदर्शों के क्षेत्र की भांति ही व्यवहारिक कार्यों के क्षेत्र में भी अपनी महानता प्रदर्शित की थी । उसने अहिंसा , विश्वशांति , मनुष्य और प्रत्येक चेतन प्राणी के बीच परस्पर शांति के सिद्धांत पर अपना साम्राज्य आधारित किया था । फलत: वह सदाचार का साम्राज्य था सत्य पर न की बल पर आधारित साम्राज्य था । और इसी कारण वह अपने युग में से इतना आगे था । कि पशु से मानव तक के कष्ट कर जीवन की नियति तथा सामान्य ऐतिहासिक प्रक्रिया का भार सहन नहीं कर सकता था ।
वह नैतिकता ,आचरण और धर्म का प्रथम गुरु था । विभिन्न प्रांतों में पाई जाने वाली शिलाओ और घोषणा स्तंभ पर आज भी नीति और नैतिकता के यह सिद्धांत अमिट शब्दों में अंकित पाए जाते हैं । यह शिलालेख एक प्रकार से सम्राट अशोक की आत्मकथा है । उसके स्मरणीय इतिहास के अति महत्वपूर्ण एवं फलदायक प्रभाव है । क्योंकि सबसे अधिक चिरकालीन सामग्री को पत्थर पर अंकित किया गया था । ताकि उन्हे चिरकाल तक कायम रखा जा सके ।
सम्राट अशोक अन्य देशों की जनता में लोकहित के कार्य करते थे , जैसे कि मनुष्य व पशुओं के लिए औषधि और चिकित्सा आदि का प्रबंध जिसका उल्लेख शिलालेख 2 में किया गया है ।, जिसके लिए भारतीय सम्राट बड़ी उदारता के साथ मुक्तहस्त होकर धन देता था । सम्राट अशोक ने धर्म और नैतिकता के क्षेत्र के अतिरिक्त राजनीतिक क्षेत्र में भी कुछ बड़े ऊंचे आदर्श पेश किए थे । एक युद्ध की भयंकरता ने ही उसके मन में यह दृढ़ विश्वास जगा दिया था । कि युद्ध का सामाजिक व्यापार में कोई स्थान नहीं होना चाहिए । उसने कहा कि बल की विजय से बढ़कर सत्य की विजय है। [शिलालेख - 13 ] उसकी निष्ठा केवल बोद्ध धर्म में ही नहीं थी ,अपितु ब्राह्मण धर्म एवं अन्य संप्रदायों में भी वह गहरी निष्ठा रखता था । उसने न केवल बोद्ध विहारो का निर्माण करवाया । बल्कि ब्राह्मण सन्यासियों एवं अन्य संतो के लिए भी अनेक विहारो का निर्माण करवाया ।
ताकि भारत में सदचार , नैतिकता , मानवीयता एवं दीन -दुखियों के प्रति रक्षा एवं भारतीय सामाजिक ताना-बाना सतत चलता रहे ।
वह महात्मा बुद्ध को अपना प्रेरक मानता था । लेकिन वह अन्य संप्रदायों में भी रुचि रखता था । वह भारत का प्रथम सम्राट था। जिसने युद्ध की बजाए प्रेम , मानवता , दीन -दुखियों की सेवा , प्रकृति की सेवा , सभी प्रकार के प्राणियों की सेवा संकल्प का पत्थर की शीलाओ , मूर्तियों, स्तंभो पर अंकित करवाया । ताकि उसकी यह देन संपूर्ण विश्व सदियों -सदियों तक स्मरण कर सके ।
आज के परिदृश्य में भारत में महान सम्राट अशोक के संदर्भ में अपेक्षाकृत बहुत ही कम दर्शाया जा रहा है । लेकिन महान सम्राट अशोक के शिलालेख हमें सदैव उसके एवं महात्मा बुद्ध के आदर्शों को प्रदान करते रहेंगे ।
नमो: बुद्धाय
जय सम्राट अशोक
जय भीम
जय सविंधान
वह नैतिकता ,आचरण और धर्म का प्रथम गुरु था । विभिन्न प्रांतों में पाई जाने वाली शिलाओ और घोषणा स्तंभ पर आज भी नीति और नैतिकता के यह सिद्धांत अमिट शब्दों में अंकित पाए जाते हैं । यह शिलालेख एक प्रकार से सम्राट अशोक की आत्मकथा है । उसके स्मरणीय इतिहास के अति महत्वपूर्ण एवं फलदायक प्रभाव है । क्योंकि सबसे अधिक चिरकालीन सामग्री को पत्थर पर अंकित किया गया था । ताकि उन्हे चिरकाल तक कायम रखा जा सके ।
सम्राट अशोक अन्य देशों की जनता में लोकहित के कार्य करते थे , जैसे कि मनुष्य व पशुओं के लिए औषधि और चिकित्सा आदि का प्रबंध जिसका उल्लेख शिलालेख 2 में किया गया है ।, जिसके लिए भारतीय सम्राट बड़ी उदारता के साथ मुक्तहस्त होकर धन देता था । सम्राट अशोक ने धर्म और नैतिकता के क्षेत्र के अतिरिक्त राजनीतिक क्षेत्र में भी कुछ बड़े ऊंचे आदर्श पेश किए थे । एक युद्ध की भयंकरता ने ही उसके मन में यह दृढ़ विश्वास जगा दिया था । कि युद्ध का सामाजिक व्यापार में कोई स्थान नहीं होना चाहिए । उसने कहा कि बल की विजय से बढ़कर सत्य की विजय है। [शिलालेख - 13 ] उसकी निष्ठा केवल बोद्ध धर्म में ही नहीं थी ,अपितु ब्राह्मण धर्म एवं अन्य संप्रदायों में भी वह गहरी निष्ठा रखता था । उसने न केवल बोद्ध विहारो का निर्माण करवाया । बल्कि ब्राह्मण सन्यासियों एवं अन्य संतो के लिए भी अनेक विहारो का निर्माण करवाया ।
ताकि भारत में सदचार , नैतिकता , मानवीयता एवं दीन -दुखियों के प्रति रक्षा एवं भारतीय सामाजिक ताना-बाना सतत चलता रहे ।
वह महात्मा बुद्ध को अपना प्रेरक मानता था । लेकिन वह अन्य संप्रदायों में भी रुचि रखता था । वह भारत का प्रथम सम्राट था। जिसने युद्ध की बजाए प्रेम , मानवता , दीन -दुखियों की सेवा , प्रकृति की सेवा , सभी प्रकार के प्राणियों की सेवा संकल्प का पत्थर की शीलाओ , मूर्तियों, स्तंभो पर अंकित करवाया । ताकि उसकी यह देन संपूर्ण विश्व सदियों -सदियों तक स्मरण कर सके ।
आज के परिदृश्य में भारत में महान सम्राट अशोक के संदर्भ में अपेक्षाकृत बहुत ही कम दर्शाया जा रहा है । लेकिन महान सम्राट अशोक के शिलालेख हमें सदैव उसके एवं महात्मा बुद्ध के आदर्शों को प्रदान करते रहेंगे ।
नमो: बुद्धाय
जय सम्राट अशोक
जय भीम
जय सविंधान