बेरोजगार मित्र
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कहते है लोग पागल हूँ मैं
देखते हैं तन को
फटे कपड़ो को
मन मे कोई झाँकता नहीं
किस गम मे डूबा हूँ मैं
उनको कोई गम नहीं
जल रहा हूँ भीतर ही भीतर मैं
चूंकि मेरी मंजिल नहीं
सतरंगी सपने भी थे
वो भी तो टूट गए
बनाना चाहता था माँ -बाप का सहारा
वो भी अब रूठ गए
पढ़ाया था कि मैं
बनूंगा उनकी लकड़ी का सहारा
था मजबूर करता क्या
कोशिशे बहुत की
पर ढूंढ ना पाया लकड़ी को
मन को क्या मैं जवाब दूँ
अब मैं घायल 'पंछी ' हूँ
ना जाने कब दम तोड़ दूँ ||
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'पंछी '